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राज योग का नया रूप सहज मार्ग : स्व. बाबूलाल शर्मा Obituary 

राज योग का नया रूप सहज मार्ग : स्व. बाबूलाल शर्मा

हमारे पूज्य पिताजी स्वर्गीय बाबू लाल शर्मा जी ने काफी पहले सहज मार्ग पूजा पद्धति पर उसकी विशेषताओं का वर्णन करते हुए एक लेख लिखा था। आज अचानक मुझे उनकी कुछ पत्रावली देखते समय मेरे हाथ लग गया। मेरी प्रवल इच्छा हुई की में वह आप लोगों के सम्मुख प्रस्तुत करूँ।

सहज मार्ग
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Ravi father Lko1पूज्यनीय बाबू जी महाराज के शब्दों में इश्वरनुभूति की एक प्राचीन पद्धति राज योग है और उनके ( श्री लालाजी महाराज ) के अनुभव पर आधारित राजयोग की एक पुनः निरूपित पद्धति सहज मार्ग है। अतः नये अभ्यासी भाई बहनों को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिये कि सहज मार्ग राजयोग से अलग कोई चीज नहीं है वल्कि श्रीलाला जी महाराज की साधना एवं तपस्या के खराद पर खराद कर परिष्कृत किया गया राज योग का नया रूप सहज मार्ग है।
महऋषि पतंजलि के अष्टांग योग में आठ अंग हैं । इनमें से पांच वाहिरंग में यम, नियम, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार का वर्णन मिलता है। अंतरंग में धारणा, ध्यान और समाधि आते हैं। कालान्तर में पाया गया कि लोग यम, नियम आदि वहिरंग में ही उलझ कर रह गए और ईश्वरानुभूति में सहायक अंतरंग धारणा, ध्यान, और समाधि तक पहुँचे ही नहीं। अतः धीरे धीरे राज योग में लोगों की रूचि कम होने लगी और एक समय ऐसा आया जब लोग राजयोग को पूरी तरह भूल गये। ऐसे में पूज्यपाद श्री लाला जी महाराज का अवतरण हुआ और उन्होंने राजयोग को आज के मानव की आवश्यकता के अनुकूल संशोधित कर के अंतरंग अर्थात धारणा, ध्यान और समाधि से राजयोग का अभ्यास करने पर जोर दिया और राजयोग को सभी मानवों के लिये सहज कर दिया ।
परम पूज्य श्री लाला जी महाराज ने अपने जीवन कल में ही अपने योग्यतम शिष्य पूज्य श्री बाबू जी महाराज को अपने आध्यात्मिक उत्तरा अधिकारी के रूप में तैयार किया और श्री बाबू जी महाराज ने अपने गुरु की अपेक्षाओं के अनुरूप कोटि कोटि मानवों के आध्यात्मिक उत्थान के लिये कार्य किया।

सहज मार्ग पद्धति
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१- सहज मार्ग पद्धति में प्रार्थना
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Ravi father Lko2 जब हम इस पद्धति को अपनाते हैं तब हमें एक प्रार्थना प्रशिक्षक द्वारा बताई जाती है। यह प्रार्थना मिशन के लगभग सभी साहित्य में हिंदी , अंग्रेजी व उर्दू में उपलब्ध है। यह प्रार्थना पूरी तरह से आध्यात्मिक उन्नति के लिये है।

२- ध्यान
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इस पद्धति में हृदय में प्रकाश पर ध्यान करते हैं। हम कल्पना करते हैं कि हृदय में ईश्वरीय प्रकाश विद्यमान है। किन्तु उस प्रकाश को देखनें के लिये मस्तिष्क पर जोर नहीं डालते ।

३- प्राणाहुति
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सहज मार्ग में प्राणाहुति एक अनुपम वस्तु है। जब आप हृदय पर ध्यान कर रहे होते हैं तब प्रशिक्षक अपने हृदय से आपके हृदय में पहले से ही सुषुप्त दैविक ऊर्जा को प्रज्वलित ( ignite ) कर देता है किन्तु यह कार्य वही प्रशिक्षक बखूबी कर पते हैं जिनका हृदय गुरु के हृदय से प्रगाढ़ता से जुड़ा होता है। गुरु का हृदय सेंटर से जुड़ा होता है और अनन्त से आने वाली दैविक ऊर्जा का अनन्त स्रोत होता है। पूज्य बाबू जी महाराज इस ऊर्जा का प्रयोग प्रशिक्षक के माध्यम से हमारे और आपके रूपांतरण के लिये आज भी कर रहे हैं। यह अनूठी चीज है जो अन्य पद्धतियों में नहीं मिलती है।

४- अभ्यासी की आयु
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अवयस्क बालक-बालिकाओं का मस्तिष्क तथा हृदय अत्यंत कोमल होते हैं और कभी-कभी प्राणाहुति द्वारा आने वाली दैविक ऊर्जा के प्रभाव को झेलने में असमर्थ होते हैं। अतः पूज्य बाबू जी महाराज ने 18 वर्ष से कम वयस्क युवक व युवितियों को पूजा में बैठने को निषेध किया है।

५- अभ्यास की अवधि
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ध्यान का अभ्यास आरम्भ में 20मिनट तथा धीरे-धीरे बढ़ा लगभग एक घंटा कर देना चाहिये। ध्यान के दौरान मन में आने वाले विचारों को बिना बुलाये मेहमान मानकर उन पर ध्यान नहीं देना चाहिये।

६- अभ्यासी की पात्रता
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अभ्यासी किसी भी धर्म-जाती अथवा व्यवसाय का होसकता है। सहज मार्ग पद्धति विशेषकर गृहस्थों की परिस्थितियों के अनुकूल निरूपित की गई है। बाबू जी महाराज ने एक स्थान पर कहा है ” ईश्वर ब्रह्मचारी से 20 कदम तथा सन्यासी से तीन क़दम दूर रहता है। जबकि वह एक गृहस्थ के भीतर रहता है जो उन्हें हृदय में बैठाय रहता है।” अतः ईश्वरीयनुभूति की किसी साधना के लिये सन्यासी होना आवश्यक नहीं है। अग्रहस्थों के अलावा अन्य सभी लोग भी इसे अपनाकर लाभान्वित हो सकते हैं।

व्यक्तिगत स्वच्छता
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अभ्यासी को अपने तन-मन अर्थात बहिरंग व अंतरंग स्वच्छता का ध्यान रखना चाहिये। आंतरिक स्वच्छता के लिये बाबू जी महाराज ने यौगिक सफाई की विधि बताई है। वह यह कि अभ्यासी संध्या काल में ध्यान में बैठे और यह विचार दे कि उसके अंदर के सभी मल विक्षप वाष्प, बादल तथा धुंए के रूप में शरीर के पीछे से निकल कर जा रहे हैं और वह स्वच्छ हो गया है।

८- पूजा का स्थान
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नियमित पूजा के लिये एक निश्चित स्थान तय कर लें और उस स्थान को भी स्वच्छ रखें।

सहज मार्ग में एक लक्ष्य , एक गुरु तथा एक पद्धति को अंगीकृत करने की बात पर अनिवार्य रूप से जोर दिया जाता है। कोई व्यक्ति दो घोड़ों पर सवार हो कर गंतव्य तक नहीं पहुँच सकता। सहज मार्ग साधना का अभ्यासी यदि गुरु द्वारा बताई गई विधि निष्ठा पूर्वक अभ्यास के उपरांत भी यदि देखे कि उसे वांछित आध्यात्मिक लाभ नहीं मिल रहा है तो ऐसी स्थिति में वह स्वेच्छा से अन्य पद्धति अपना सकता है, दूसरा गुरु कर सकता है किन्तु अलग-अलग कर्मकाण्डों तथा पूजा पद्धतियों में लिप्त रहते हुऐ सहज मार्ग पद्धतियों द्वारा आध्यात्मिक उन्नति अर्थात सामान्य मानव से पूर्ण मानव में रूपांतरण संभव नहीं हो सकता। पूज्य लालाजी महाराज ने भी खा है कि बिना पूर्ण मानव बने ईश्वरानुभूति संभव नहीं है।
—-/ बी०एल०शर्मा
अपने पूज्य पिता जी स्वर्गीय बाबू लाल शर्मा ( पूर्व मुख्य खाद्य निरीक्षक ) व उनके परम पूज्यनीय गुरु बाबू जी महाराज को समर्पित।
धन्यवाद

रवि प्रकाश शर्मा
पुत्र स्वर्गीय बी०एल०शर्मा

हमारे पूज्य पिता जी का संछिप्त परिचय
नाम- बाबू लाल शर्मा पुत्र स्वर्गीय पंडित रघुनाथ प्रसाद शर्मा , जन्म 10 जून 1942 व स्वर्गवास 28 फरवरी 2011
निवासी- ग्राम- भट्ट पुरवा, हियातनगर तहसील- गोसाईगंज, जिला- सुल्तानपुर (उ०प्र०)
आपके पिता जी का स्वर्गवास बचपन में वल्यावस्था में जब पांच वर्ष के थे हो गया था। जीवन काफी संघर्ष पूर्ण बीता। पढ़ाई लखनऊ के सेंट्रिनियल व क्रिश्चियन कालेज में की इसका भी एक कारण था। आपके पिता जी बिर्टिश पीरियड में कचेहरी में कार्यरत थे। पैसे के अभाव में स्वयं की शिक्षा खर्च उठाने के लिये अपनी कक्षा से एक कक्षा पीछे के विद्यार्थियों को पढ़ा कर अपनी माँ व अपना खर्च वहन किया करते थे। अध्यन को अपने जीवन में सदैव महत्व दिया। और सदैव अपनी कक्षा में प्रथम स्थान बना कर रखा।
अपनी शिक्षा समाप्त करने के उपरांत जो आर्थिक अभाव के कारण जल्द ही सुलभ होने वाली नोकरी सेनेट्री इन्स्पेक्टर की कर ली। आगे चलकर कई बिभागीय व कोर्ट द्वारा दिय गये चार पुरस्कार सम्मानों के साथ मुख्य-खाद्य निरीक्षक के पद से सन् 2000 में सेवा निव्रत होकर शेष जीवन लखनऊ में व्यतीत किया।
अपने पूज्य पिता जी के बारे में बताने को तो बहुत कुछ है हमारे पास वह एक महान आत्मा , आध्यात्मिक गुरु, एक दार्शनिक, तथा एक साइंस के मास्टर हुआ करते थे। वे मेरे हृदय में आज भी जीवित हैं। आज मुझ में जो भी ज्ञान है मेरी शिक्षा से न होकर उनका अंश मात्र है। जीवन की इस क्षति को भुला पाना हमारे लिये संभव नहीं है अभी तो बहुत कुछ सीखना था उनसे पर शायद अच्छे लोगों की ईश्वर को भी आवश्यकता होती है।
महान् आत्मा को मेरा सत्-सत् नमन ।

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