You are here
स्त्रियों को पुरुषों के बराबर दर्जा मिलना ही चाहिए Bihar India 

स्त्रियों को पुरुषों के बराबर दर्जा मिलना ही चाहिए

वर्तमान समय में स्त्रियाँ किसी भी क्षेत्र में पुरूषों से कम नहीं है। हर एक वैसे क्षेत्र जिसमें पहले पुरूष वर्ग ही कार्यरत थे, अब महिलाये भी वहाँ बराबरी से कार्य कर रहीं है। अब तो सेना में भी स्त्रियों के जाने में प्रतिबंध नहीं है। महिलाएं किसी भी क्षेत्र में रहीं हो वे यह सिद्ध कर चुकी हैं कि वे पुरूषों के बराबरी में काम कर सकती हैं।
सगीता राय/ पूर्णिया
हमारा भारतीय समाज पुरूष प्रधान समाज रहा है। हर युग में समाज की हित-कामना को उद्देश्य में रखकर नीतियाँ निर्धारित की जाती रही, जिससे समाज का कल्याण हो,समाज की एक विचारधारा हो,वह उन्नति के पथ पर क्रमशः अग्रसर होता जाय। युग बदलते रहे, परिवर्तन होते रहे, नयी नीतियों का निर्धारण होता रहा पर निर्धारण- कर्ता पुरूष वर्ग ही रहा। अहंमन्यता- वर्चस्वता उसी की रही। नारियों का नीति-निर्धारण में न तो कोई योगदान ही रहा न पुरूषों ने उसकी कोई आवश्यकता ही समझी फलस्वरूप जो श्रेयकर था वह पुरूष -वर्ग के हिस्से में रहा और नारी घर के चारदीवारी में कैद हो गयी।
.
किन्तु परिवर्तन अवश्यमभावी है। उसे रोका नहीं जा सकता है। परिवर्तन हुआ जिसका रूप हम आज भारतीय समाज में देख रहे है। आर्थिक, राजनैतिक , सामाजिक और शैक्षणिक सभी दृष्टियों से नारियों मे चेतना जागृत हुई,उन्हें बोध हुआ कि उनकी यह स्थिति अब असहनीय है। इधर समाज में अनेक समाज सुधारक हुए जैसे ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, राजा राम मोहन राय, दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद ,ज्योति बाई फुले, महात्मा गाँधी, इत्यादि जिन्होंने समाज सुधार के साथ साथ नारी के उत्थान का बीड़ा उठाया, दबी कुचली नारियों को भी अपनी अस्मिता की पहचान होने लगी फलस्वरूप उनमें धीरे-धीरे शिक्षा की ओर रूझान बढ़ी। शिक्षा मनुष्य को विवेकशील बनाती है। उसके अहं को जागरूक करती है, उसे जीने की प्रेरणा देती है। शिक्षा के क्षेत्र में पदार्पण करते ही नारियां जागृत हो उठी उन्होंने अपने दायित्वों के साथ साथ अपने अधिकारों को भी पहचाना।
.
आज इक्कीसवीं सदी में नारी का जो रूप हम देख रहे है उसमें एक आमूल-चूल परिवर्तन पाते है। शिक्षा के कारण उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति में सुधार के लक्षण हम स्पष्ट रूप से देख रहे है। आज महिलाएं जो पढ़ी लिखी है वो स्वावलंबी बनने के लिये कार्य कर रही है। और जो शिक्षित है और कामकाजी नहीं है वह भी स्वावलंबी बनने के लिये प्रयत्नशील है और चेष्टा कर रही है कि समाज में अपना स्थान बना सके, अपनी पहचान बना सके। इस बात को सिद्ध कर सके कि पुरूष और नारी एक ही गाड़ी के दो पहिए है और बिना नारी के योगदान के यह समाज रूपी गाड़ी खींची नहीं जा सकती।
.
स्त्री और पुरुष समाज के दो महत्वपूर्ण इकाई है। इस दृष्टिकोण से स्त्रियों को पुरुषों के बराबर का दर्जा मिलना चाहिए। जिन स्त्रियों को पढ़ने लिखने के समान अवसर मिल रहे है वो पुरूषो के बराबरी में आ रही है आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही है तथा अपनी सामाजिक स्थिति को भी उन्नत करने का प्रयास कर रहीं है। वर्तमान समय में स्त्रियाँ किसी भी क्षेत्र में पुरूषों से कम नहीं है। हर एक वैसे क्षेत्र जिसमें पहले पुरूष वर्ग ही कार्यरत थे, अब महिलाये भी वहाँ बराबरी से कार्य कर रहीं है। अब तो सेना में भी स्त्रियों के जाने में प्रतिबंध नहीं है। महिलाएं किसी भी क्षेत्र में रहीं हो वे यह सिद्ध कर चुकी हैं कि वे पुरूषों के बराबरी में काम कर सकती हैं।
.
यदि हम भारत के अतीत से लेकर वर्तमान तक दृष्टि डालें तो देखेंगे कि सीता, उर्मिला, झांसी की रानी, सरोजनी नायडू, सुचेता कृपलानी, इंदिरा गाँधी, बछेन्द्री पाल, दिव्यांग अरूणिमा सिन्हा, आरती साहा, कर्णम मल्लेश्वरी, कल्पना चावला, साक्षी मल्लिक, मैरी काॅम तथा अन्य कई महिलाएं है जिन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि नारी शक्ति या साहस में किसी से कम नही है। आज तो वायुसेना में भी फाइटर जेट उड़ाने वाली महिला पायलट अवनी चतुर्वेदी ने भी सिद्ध कर दिया कि हिम्मत और साहस महिलाओं में भी कम नहीं है। पर मात्र इन्हीं उदाहरणों के आधार पर हम ये नहीं कह सकते कि समाज में आज स्त्री और पुरूष की समान सामाजिक और आर्थिक स्थिति है। उनमें आज भी भेद है। समाज में प्राचीन काल में स्त्रियों का महत्वपूर्ण स्थान था क्योंकि कोई भी यज्ञ या शुभ कार्य तभी सफल माना जाता था जब स्त्री-पुरूष दोनों भाग लेते थे।
 
यूँ तो संवैधानिक स्तर पर स्त्री को समानता के अधिकार प्राप्त हो चुके है पर मात्र इससे ही उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति को संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता। संविधान के अनुसार हमारा देश समाजवादी राष्ट्र घोषित किया गया है। किन्तु वास्तविक जीवन के परिवेश में यह सब सच नहीं दीख पड़ता। संविधान में ऐसी बहुत सी बाते हैं जिनका यथार्थ जीवन से कोई संबंध नहीं है। सच्चाई तो यह है कि समाज में यथार्थ रूप से ऊॅच-नीच का, स्त्री-पुरुष का भेदभाव थोड़ा तो अवश्य है। यह तमाम विभेदक व्यवस्था सामंती व्यवस्था के ही अवशेष है जो हमारे समाज में आज भी विद्यमान है।इसे दूर करने की आवश्यकता है। संपूर्ण समाज में परिवर्तन लाने के लिये मात्र संविधान में परिवर्तन लाने की आवश्यकता नहीं है बल्कि सामाजिक व्यवस्था में बदलाव आये इसके लिए खासकर महिलाओं को भी प्रयत्नरत होने की आवश्यकता है। शिक्षा और आत्मविश्वास दो ऐसे अस्त्र है जिन्हें अपना कर स्त्रियाँ अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर सकती हैऔर समाज में विकास ला सकती हैं बशर्ते पुरूष वर्ग का सहयोगात्मक रवैया हो।एक ऐसे समाज की रचना हो सकती है जहाँ पुरूषो और स्त्रियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति मे समानता हो।

Related posts

Leave a Comment