You are here
लाखों में सबसे प्यारा है एक गांव हमारा: भरथुआ Uncategorized 

लाखों में सबसे प्यारा है एक गांव हमारा: भरथुआ

याद आती है गांव की वो कच्ची सड़के किसी के महल तो किसी के खपरैल और फुस की मकान। याद आती है वो घर का दही-चूड़ा, खेसारी की साग, आम लीची के पेड़ और हरे भरे खेत-खलिहान। याद आती है वो नमोनाथ बाबा का मंदिर, जिसका इतिहास में भी है दास्तान। जहां साक्षात शिव-शंकर बसते हैं, इस बात का है ठोस प्रमाण।।

Rajnish Kumar/Porbandar, Gujrat/मूल गांव: भरथुआ

मैं रजनीश कुमार भरथुआ गांव मुजफ्फरपुर बिहार का निवासी हूं। अभी कल के पोस्ट में अपने गांव को विकास की ओर अग्रसर देख बहुत खुश हूं। सभी लोगों का एक गांव होता है और उससे उन्हें लगाव भी बहुत होती है, इसमें कोई शंका नहीं। मैंने भी अपने गांव पर अपने बिताए बचपन पर कुछ लाइन लिखा है जो आप सब से सांझा करने की इक्षा हुई। अच्छा लगे तो आशीर्वाद दीजिएगा..
 

गांव की याद आती है

भारत गांवो का ही देश है भले ही हम रहने लगे शहरों में, पर इसका शुरुआत गांव से ही हुआ है। ऐसे ही लाखों में सबसे प्यारा है एक गांव हमारा जिसका पावन नाम भरथुआ है।।
सिर्फ नाम सुनकर ही मन पुलकित हो उठता है, ना जाने कितने दिलों ने इस एहसास को छुआ है। जहां जाओ देश भर में, यहां तक कि विदेशों में भी दिखती मां जालपा भवानी की दुआ है।।
याद आती है जब भी बिते लड़कपन के दिन, धड़कने तेज और आंखे नम हो जाती है। कहां गए वो अपनो के साथ बचपन के दिन, मुझे अपने गांव की बहुत याद आती है।।
याद आती है गांव की वो कच्ची सड़के किसी के महल तो किसी के खपरैल और फुस की मकान।
याद आती है वो घर का दही-चूड़ा, खेसारी की साग, आम लीची के पेड़ और हरे भरे खेत-खलिहान।।
याद आती है वो नमोनाथ बाबा का मंदिर, जिसका इतिहास में भी है दास्तान।
जहां शाक्षात शिव-शंकर बसते हैं, इस बात का है ठोस प्रमाण।।
वो शिवनाथ बाबा की भूमि जहां की कुलदेवी मां जालपा भवानी है, जिनके नाम मात्र से ही सारे संकट-विपदा, रोग-दोष मिट जाती है। कहां गए वो अपनो के साथ बचपन के दिन, मुझे अपने गांव की बहुत याद आती है।।
याद आती है वो भैरव-स्थान का मेला, जहां हर साल फाल्गुन मास में जाते थे। बाबा भैरवनाथ को पूजा कर, जी भर के जलेबी समोसे और रसगुल्ले खाते थे।।
वो भी याद है जब गांव में दुर्गा पूजा का आयोजन होता था। हम बच्चो के लिए तो मानो एक अद्भुत सा मनोरंजन होता था।।
वो लाठी-फरसे को भाजना, हमउम्र में कुश्ती ये सब वहां विशेष था। पर बिना काजल लगवाए, घर से निकलना भी निषेध था।।
वो ठाकुर जी, ब्रह्मबाबा, और मैया जी के दरबार में होली की गीत, दिलों में आज भी गुनगुनाती है। कहां गए वो अपनो के साथ बचपन के दिन, मुझे अपने गांव की बहुत याद आती है।।
याद आती है वो सावन का झूला, जो नीम के नीचे झूलने जाते थे। हर रोज नमोनाथ जाना, ये तो कभी नहीं भूल पाते थे।।
रास्ते भर कहीं घुटने तो कहीं कमर भर पानी में, कूद-कूद कर नहाते थे। जैसे ही मंदिर दिख जाए, बोलबम-बोलबम के नारे जोर-जोर से लगाते थे।।
काश वो दिन फिर से एक बार आ जाए, ये ख्याल मन में आज भी लुभाती है। कहां गए वो अपनो के साथ बचपन के दिन, मुझे अपने गांव की बहुत याद आती है।।
क्या ये भी कोई भूल सकता है, जब गांव में चारो ओर से बाढ़ आ जाते थे। तीन-चार मास तो,बहुत हीं मुसीबतों से बिताते थे।।
जहां देखो सिर्फ पानी ही पानी, मानो सारे गांव जवार टापू बन जाते थे। हम बच्चो का स्कूल बन्द हो जाता, फिर पापा (गुरुजी) अपने दरवाजे पर ही सबको बुलाकर पढ़ाते थे।।
वो नाव से औराई-कटौझा जाना, औरो को देख हिम्मत रखना मगर पानी देख घबराना, हर एक बात कभी कभी आंखों के सामने आ जाती है। कहा गए वो अपनो के साथ बचपन के दिन,मुझे अपने गांव की बहुत याद आती है।।
याद है वो नंथोरबा पोखर, जहां हर साल छठ में चार चांद लग जाते थे। कल होकर (पूजा के बाद) वहां की स्वादिष्ट मछली और चावल, बड़े ही चाव से खाते थे।।
उसी के निकट थी एक भुतहा गाछी (बंसवारी), जब भी जाते उधर से डर के मारे कांप जाते थे। कभी औराई से लौटने में अंधेरा हुई, तो वहां आते ही मन ही मन जय-जय हनुमान गाते थे।।
रुला देती है पापा के साथ गुजरे पल, वो स्कूल जाना, गांव और खेतों की सैर लगाना, अब दिल को बहुत तरपाती है। कहा गए वो अपनो के साथ बचपन के दिन, मुझे अपने गांव की बहुत याद आती है।।
याद है वो बागमति का पानी, जिसके धारा की आवाज से ही डर लगता था। उसी नदी को पार कर हाई-स्कूल जाना तो रोज पड़ता था।।
वो स्कूल में भरथुआ-बेनीपुर के कुछ बच्चो में पंगा तो हर रोज होता था। जब बात किसी से थमती नहीं तो सिर्फ अवधेश बाबू का खोज होता था।।
याद करते है उन सुनहले दिनों को, दिलों की बेचैनी और बढ़ जाती है। कहा गए वो अपनो के साथ बचपन के दिन, मुझे अपने गांव की बहुत याद आती है।।
ये भी याद है वो जनाढ़ चौक का समोसा, पंडी जी का पेड़ा जिसके नाम लेते ही मुंह में पानी आते थे।
वो गन्ने की खेत में जाना, और सैदपुर का बादशाही तो खूब खाते थे।।
वो कटौझा वाला रास्ता, जो चलते-चलते देशी पाउडर से अंग्रेज़ बन जाते थे। वो उमानाथ सर से पढ़ने जाना, जहां सारे दोस्तो में अव्वल माने जाते थे।।
गर्व है कि उस पावन मिट्टी पे जन्म लिए, ये मेरे हृदय में सदा एहसास दिलाती है। कहां गए वो अपनो के साथ बचपन के दिन, मुझे अपने गांव की बहुत याद आती है।।
कुछ कड़वे यादें भी हैं, पर निंदा और बुराई से कुछ पाया नहीं जाता। मुझे लगता है जिस बात से हमें और दूसरों को परेशानी हो, उसे सबको सुनाया नहीं जाता।।
कितने सुनाऊं बातें अपने भरथुआ की, कभी ना खत्म होने वाली ये किस्से सारी है। ये मै दिल से कहता हूं कि,इस जहां में सबसे सुंदर गांव हमारी है।।
जन्म लिए हैं जिस मिट्टी में, उसका कभी कर्ज चुका जाऊं, ये दिल में अरमान लाती है।
कहां गए वो अपनो के साथ बचपन के दिन मुझे अपने गांव की बहुत याद आती है।।
Comments on BBW group at facebook:
Sumit Kumar Bhatt बहुत खूब भैया ।आपके इस कविता को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है की भरथुआ की याद ताजा हो गयी। मैं ज्यदा दिन तो नही गुजरा हूँ वहां पर लेकिन आपके कविता के माध्यम से महसूस हो रहा है कि जैसे सब कुछ सामने स्पष्ट है। मेरी माँ का जन्म भूमि है इसलिए उस भूमि से मेरा भी व्यक्तिगत लगाव है । आपके लेखनी ने दिल को छू लिया , जितनी तारीफ की जाय कम है।
 
Ravi Kumar एक कविता के माध्यम से सब कुछ प्रकट करना…. अद्भुत रचना…. बहुत बहुत शुभकामनायें…. बहुत अच्छा लगा…. गाँव की याद आती हैं।
Tuhin Kumar सहज एवं अनुभूतिजन्य विवरण।सच है माँ और गांव कभी नहीं विस्मृत होते।और स्वजाति का विख्यात अपने भरथुआ ग्राम की विशेषताएं ही अद्वितीय है। जय जलपा मां।
Ashish Roy क्या बात है रजनीश तुमने तो पूरी बचपन को ही सामने लाकर रख दिया। बिलकुल सही गांव से जुड़ी इतनी सारी यादें हैं की उसे शब्दों में बयां नही किया जा सकता।
Jyotsana Roy सच ,कहते हैं कि बचपन की वो यादें बड़ी अनमोल होती है… भाई तुमने तो कविता में पुरी गांव ही छ्वी उतार दी है …सच हमारा गांव है ही प्यारा…..
Rakesh Sharma: बहुत बेजोड़ तरिके से आपने अपने गाँव का परिचय दिया।बहुत अच्छा पोस्ट।भरथुआ से मेरी भी यादें जुड़ी है जब कटौंझा से पैदल चलकर भरथुआ में जाता था।भरथुआ गाँव में तो बहुत दिन नहीं रहा लेकिन मुजफ्फरपुर में स्थित भरथुआ बैरक में रहकर पढ़ाई की और भरथुआ की महक लेता रहा।अब गाँव का विकास देखकर मन बहुत खुश हो रहा है।
Manish Kumar: सिर्फ़ इस गाँव मे एक ही चीज की कमी रह गया है वो है हॉस्पिटल
Priyanka Roy: भरथुआ गांव पर आपके भावनात्मक विचारों को पढ़कर मन खुश हो गया। अपने गांव से हर किसी की प्रीत होती है। और आपका गांव और मेरा ननिहाल ‘भरथुआ’ की ज्यादातर खासियत ही ख़ासियत है जिससे अधिकांशतः अवगत भी हैं। एक बार फिर से जाने का मन होता है, बहुत सी अच्छी यादें जुड़ी हैं मेरे ननिहाल की। आपको इस भवनात्मक अभिव्यक्ति के लिये हार्दिक धन्यवाद।
Alok Sharma: तुमने तो अपने शब्दों में भरथुआ की मिट्टी लगा रखी है। हम आशा करते है कि हमारा गांव और आगे बढ़े औऱ साथ साथ हम सब का प्यार भी। फिलहाल बचपन की यादें गुदगुदा रही है।
GunjanAvinash Sharma: वाह।सच में अपने गांव की बहुत याद आती है।हम छुट्टियो में जाया करते थे भरथुआ ।आपके शब्दों से भरथुआ में बिताया हुआ हर दिन हर पल आंखों के सामने आ गया। सच में गांव की और अपनों कि बहुत याद आती है ।चूरा दही , खेसारी का साग ,छोटकी मछली, जनार से पैदल सर पर झोला रखकर जाना बहुत याद आता है।
Sanjay Bhatt बहुत ही सुन्दर मन को छू गयी।
Adarsh Kumar Bhatt बहुत ही बढिया विश्लेषण । गागर मे सागर भर दिया आपने।
Sanjay Kumar: बहुत सुंदर विश्लेषण रजनीश, बहुत ही अच्छा लिखे हो। हमे लगा कि मै अभी भरथुआ में ही हूं।२००३ या २००४ में जब मामाजी जीवित थे, उस समय मे भरथुआ आने जाने में काफी दिक्कत होती थी।ना बिजली ना रोड ना ही कोई मूलभूत सुविधाएं,उस टाइम मै भी बराबर भरथुआ जाता था,क्योंकि हमे मामाजी के साथ बहुत मन लगता था, ममेरे भाई के साथ खेत खलिहान घूमना नदी नहाना, बेशी बाजार से सब्जी लाना,सब लगता है कल की बात है।खैर इतना आवागमन की दिक्कत होते हुए भी हम बराबर भरथुआ जाते रहते थे।उस समय मैंने एक कविता लिखी थी जो मैं आज इस ग्रुप मे शेयर कर रहा हूं। एक बार मै और मेरा ममेरा भाई खाकर dal bhat और थोड़ी सी मलाई, प्रोग्राम बनाया की घूमेंगे नेपाल तभी मेरे मामाजी ने दागा सवाल। क्यों संजय कहां की हो रही है तैयारी, वहां नेपाल में हो रही है माओवादियों से मारामारी।सुनकर मामा की बात मेरे अरमानों पर फिर गया पानी,और मैंने अपने ननिहाल से भागने की ठानी।लेकर कंधे पर ५ शेर का बोझा दौड़ता हुआ पहुंचा सीधे kataunjha, पर संजोग हुआ ऐसा की भरथुआ में छुट गया पैसा। अब क्या घूमेंगे नेपाल,मेरे सामने था पैसे का सबसे बड़ा सवाल। बड़े दुःखी man से मैं लौट गया भरथुआ,और मुन्ना बोला मेरी मां से संजय भैया लौट के आ gelo फुआ। तो कहने का मतलब कि पहले भरथुआ मे मूलभूत सुविधाओं का बहुत ही अभाव था।अब जब सरकार सारी सुविधा दे रही है तो बहुत ही अच्छा लगता है एक बार फिर से रजनीश को बोलता हूं की बहुत ही अच्छा लिखते हो।
Lakhindra Sharma भरथुआ का गौरवशाली अतीत /भूगोल जगजाहिर हैं! यदि भरथुआ को बिरादरी का राजधानी कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगा!
 
Roy Shubhasini बहुत ही सुंदर विश्लेषण ,आपने तो भरथुआ और आसपास के स्थानों का बहुत ही सुंदर शब्द चित्र प्रस्तुत किया है।एक एक लाइन पढऩे पर आखों के सामने सारे दृश्य जीवंत हो गए, युं लगा जैसे हम भरथुआ घुम आए,सचमुच आज भी बहुत याद आता है।
 
Tuhin Kumar लखिन्द्र जी ,आपने यह सही कहा कि भरथुआ स्वजाति की राजधानी है; कयोंकि ब्रह्मभट्ट बिरादरी के अधिकतर गांवों (खासकर बिहार+झारखंड)के परिवारों से इसके संबंध हैं, जो भारत के अनेक राज्यों में भी नौकरी-व्यवसाय करते है और घर बनाये हुए हैं।सन्2016 में पटना मंथन मे भरथुआ के मेरे उमा चाचा ने भी गांव की ठीक यही तुलना की थी।अब तो इसका स्वरूप और निखर गया है।यह प्रकृति और बागमति नदी की गोद में अवस्थित है किन्तु रिंग बांध से पूर्णतः सुरक्षित।आवागमन व यातायात की सुगमता।मुजफ्फरपुर-सीतामढी एन.एच.से गांव के अंर्तभाग तक उत्तम सडक,जहां सभी गाडियां जाती हैं।विद्युत व्यवस्था भी संतोष जनक है।परंतु इन दिनों मोबाईल नेटवर्क की समस्या है। कुल मिलाकर एक पिकनिक स्पॉट सदृश्य है।
Subodh Kumar भरथुआ का इतना सुंदर विश्लेषण पढ़ कर आज पहली बार मुझे इस बात का गर्व हुआ कि मेरा रिस्ता इस गाँव से है।
 
Arvind Kumar बहुत ही सुंदर गाँव
Rajnish Kumar जहां भी सत्यनारायण भगवान की पूजा होती, पूरे गांव में आरती करने जाते थे।
आरती भी इतनी दुर्लभ और पावन है वहां की, मानो भगवान स्वर्ग से उतर आते थे।।
वो जमकर दुधकेरी प्रसाद खाना, वो सचेंद्र भाई बरनाला चा का भक्तिगाना।
वो करीबन भाई का ढोलक बजाना, वो दीपक छोटका का होली में महफ़िल जमाना।।
वो सचेंद्र बाबा के मंदिर का झूला। वो डाक बाबा के दरवाजे पर होता गीत ना भुला।।
इन अवसरों पर घर से दूर रहने की, गम मुझे बहुत सताती है।
कहां गए वो अपनो के साथ बचपन के दिन मुझे अपने गांव की बहुत याद आती है।।
Tuhin Kumar अब अत्यधिक गाँव को याद करना यथोचित नहीं।कयोंकि गाँव में निःछल और निर्मल प्रेम तो है, परंतु रोजगार नहीं।ऐसा भी उदाहरण है,जिन्होंने गांव से अधिक प्रेम के कारण बाहर नौकरी करने नहीं गये या नौकरी छोडकर गांव भाग आये और संपूर्ण जीवन आर्थिक तंगी में गुजारे।इसलिए जज्बात और यादों पर नियंत्रण रखे और जहाँ(पोरबंदर, गुजरात) हैं, रम कर अपनी ड्यूटी करें।

Related posts

Leave a Comment