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शादी के बाद भी बेटी की जिंदगी कैसे खुशहाल हो? Bihar India 

शादी के बाद भी बेटी की जिंदगी कैसे खुशहाल हो?

daughterविवाहिता बेटी या बहू को समझाते हैं हम सब के साथ ऐसे चलो, ऐसे कपडे पहनो, घर के काम में  हाथ बटाओ, मगर क्या बेटे को समझाया कि औरतों को सम्मान दो? जागरूकता आनी चाहिए और उसे कोई और नहीं हम सब ही ला सकते हैं । असमानता मिटाकर दहेज को रोककर, बेटी को भी खुशी से जन्म देकर, उसे बोझ नहीं अपना खून समझकर, बहू को बेटी मानकर और सास और ननद को अपनी माँ और बहन की परछाई समझकर।

भारती रंजन / दरभंगा

लेखिका भारती रंजन
लेखिका भारती रंजन

यूं तो हमने चांद तक का सफ़र तय कर लिया है। कुछ लोग कहते हैं कि बेटी-बेटा एक समान। मगर अपने दिल पर हाथ रखकर कहें तो जिंदगी की सच्चाई इससे परे है। आज भी महिलाओं और पुरुषों के बीच बहुत बड़ी खाई है जिसे पारिवारिक असमानता, सामाजिक असमानता एवं शैक्षिक असमानता कहा जाए तो कहीं से गलत नहीं होगा। आज भी अत्याचार सह रही हैं अधिकतर महिलाएं। और बेटी बनकर जन्म लेने का अभिशाप को झेल रही हैं। वो भ्रूण-हत्या हो, बेटा और बेटा-बेटी में  फर्क हो। दहेज की आग हो, पति की यातना हो या ससुराल वालों की प्रताड़ना। बेटा चाहिए तो बेटी को मार दो ये कैसा न्याय है ? अपने खून के कतरे को कोई कैसे फेंक सकता है? शादी से पहले अधिकतर घरों में मां-पापा कहते हैं कि ये तुम्हारा घर नही है तुम तो पराई हो।

शादी के बाद पति और उनके घरवाले कहते हैं कि अपने पिता के घर जाओ, ये तुम्हारा घर नही, आज तक बेटियाँ ये नहीं समझ पाई कि उनका अपना घर कौन सा है? पति शराबी हो जुआरी हो या चरित्रहीन हो, रहना उसे उसी के साथ पड़ता है क्योंकि एक बार मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र पहनाकर वो पति परमेश्वर बन जाता है, ये बात और है कि उस परमेशवर में भगवान तो क्या इंसान भी दूर-दूर तक नहीं होता। वो पत्नी को मारे-पीटे, यातनाएं दे मगर समाज और परिवार के लिए कोई शर्म की बात नहीं होती। लडकी उसी नर्क मे घुट-घुटकर मर जाए तो भी किसी के मन में लड़की के लिए इंसानियत नहीं जगती। यदि युवती उस अन्याय का विरोध करे तो लोग कहते है कि ये गलत है। प्रताड़ित होकर मर गई या मार दी गई तो ठीक है। लेकिन अगर वो उस कीचड़ से बाहर आकर जीना चाहे तो पाप कहा जाता है।

दहेज के नाम पर कितने बेटी वाले बेघर हो गए क्योंकि उस घर से उन्होंने बेटी का घर बसाना चाहा। मगर न घर रहा न बेटी की खुशियां। एक बेटी का पिता जीवन ऐसे बिताता है जैसे उसने बेटी को नहीं कितनी बडी मनहुसियत को जन्म दिया है।
bharati-ranjan1बेटी को बहुत समझाते हैं हम सब के साथ ऐसे चलो, ऐसे कपडे पहनो, घर के काम में  हाथ बटाओ, मगर क्या बेटे को समझाया कि औरतों को सम्मान दो? जागरूकता आनी चाहिए और उसे कोई और नहीं हम सब ही ला सकते हैं ।असमानता मिटाकर दहेज को रोककर, बेटी को भी खुशी से जन्म देकर, उसे बोझ नहीं अपना खून समझकर, बहू को बेटी मानकर और सास और ननद को अपनी माँ और बहन की परछाई समझकर।
हमे परिवर्तन लाना होगा और अपनी सोच को आज के वक्त और परिस्थिति के अनुसार बदलना होगा तभी एक ऐसे समाज का निर्माण होगा जहां स्त्री और परुष दोनों  कंधे से कन्धा मिलाकर अत्याचार क खिलाफ़ लड सकेंगे और जीवन को खुशनुमा बना सकेंगे।

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