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खोईछा के लिए स्नेहिल हाथ न हो तो बेटी क्या करे? Bihar India 

खोईछा के लिए स्नेहिल हाथ न हो तो बेटी क्या करे?

ससुराल से मायके जाते वक्त भी खोईछा देने की प्रथा है। खोईछा देने की प्रथा के पीछे बेटी-बहू की खुशहाली एवं उनके सौभाग्य की मंगलकामना का उद्देश्य ही हो सकता है। खोईछा में दी जाने वाली सामग्री यथा अक्षत, दूब , हल्दी की गांठ, सुपारी ,सिक्का का हमारे हिन्दू धर्म मे कितना महत्व है यह तो हम सब जानते ही है।

संगीता रॉय/ पूर्णिया (बिहार)

संगीता रॉय, पूर्णिया (बिहार)

हमारा भारतीय समाज एक परम्परागत समाज है। अनेकों रीति-रिवाज एवं प्रथाओं का प्रचलन है। कुछ रीति-रिवाजों का सम्बन्ध केवल महिलाओं से होता है। महिलाएं अपनी परम्पराओं को खुशी-खुशी अपनाती हैं और अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करती हैं। हमारे समाज के कुछ रीति-रिवाजों का, महिलाओं के सौभाग्य से जुड़ी होने की भी मान्यता है।

 
आज मैं जिस प्रथा के बारे में बताना चाहती हूँ उससे हम सभी महिलाएं भली-भांति परिचित हैं। पर मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि शायद हम महिलाओं से जुड़ी यह प्रथा भी अब महानगरीय जीवन-शैली एवं आधुनिकीकरण के कारण धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। नयी पीढ़ी भी इस रिवाज से परिचित अवश्य होंगी।
 
विवाहित स्त्रियों को “खोईछा” देने की प्रथा लगभग हर राज्य में प्रचलित है। भले ही अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नाम हो। हमारे बिहार में इसे” खोईछा” कहते हैं। शायद उत्तर भारत में “गोद भरना” कहते हैं। यह परम्परा हमारी भावनाओं एवं धार्मिक महत्व का अनमोल मिश्रण है।
 
जब भी कोई विवाहित स्त्री मायके जाती है और जब वापस आने लगती है तो माँ, भाभी, चाची या बुआ जो सुहागन हो उसके आंचल में बड़े स्नेह और भावुकता के साथ चावल, हल्दी की गांठ, दूर्वा, सुपारी एवं सामर्थ्यानुसार कुछ पैसे देती हैं।आंचल में दी जाने वाली वस्तुओं में स्थान विशेष के रिवाज के अनुसार भिन्नता हो सकती है। पर भावनाएँ वहीं रहती हैं।फिर एक दूसरे की मांग में सिंदूर लगाना, अश्रु पूरित नयनों से एक दूसरे को देखना, चावल के दो चार दाने माँ या भाभी के द्वारा निकालते हुए ये कहना कि फिर जल्द ही मायके आना, बेटियों को भावुक बना ही देता है।
 
ग्रामीण समाज मे तो यह प्रथा आज भी जीवित है। गांवों मे तो कहते हैं बेटिया सब की साझी होती हैं। कही-कही तो बेटियों को “सबासिन “भी कहते हैं अर्थात जिसे सबसे आशा हो। ग्रामीण समाज मे बेटियों को चलते वक्त सिर्फ अपने ही घर से नहीं बल्कि गांव के सभी रिश्तेदारों के घर से खोईछा मिलता है। कितनी भावनाएँ बंधी होती हैं उन चन्द सामग्रियों में। ससुराल से मायके जाते वक्त भी खोईछा देने की प्रथा है। खोईछा देने की प्रथा के पीछे बेटी-बहू की खुशहाली एवं उनके सौभाग्य की मंगलकामना का उद्देश्य ही हो सकता है। खोईछा में दी जाने वाली सामग्री यथा अक्षत, दूब , हल्दी की गांठ, सुपारी ,सिक्का का हमारे हिन्दू धर्म मे कितना महत्व है यह तो हम सब जानते ही है।
 
देवी दुर्गा को भी नवरात्रि के मौके पर अष्टमी या नवमी को सुहागन स्त्रियां खोईछा अवश्य देती हैं। कहते हैं नवरात्र में माँ दुर्गा मायके आती है अतः उन्हें खोईछा दे कर विदा करते हैं। अर्थात यह परम्परा बहुत पुरानी है और आस्था से जुड़ी है।
 
अब शायद यह प्रथा कुछ कमजोर होती जा रही है। आधुनिक युग की नयी पीढ़ी की महिलाएं इन रिवाजों से ज्यादा बंधी नहीं हैं। समय और सुविधा के अनुसार रीति-रिवाजों में कमी आयी है। पर समय की यही मांग है। पर हमारी पीढ़ी की महिलाएं इसे भूल नहीं सकती बहुत सी मधुर यादे जुड़ी होंगी। मायके जाने का एक अहम हिस्सा है खोईछा। जिनके मायके में खोईछा देने के लिये कोई स्नेहिल हाथ न हो वो बेटी बेचारी क्या करे। उसका आंचल तो खाली ही रह जायेगा।
Comments on BBW Facebook Group: 
Rakesh Sharma : यह प्रथा आज भी हमारे क्षेत्र में विधमान है।
 
Sangita Roy: बहुत खुशी हुई राकेश जी यह जानकर कि यह प्रथा आज भी जीवित है। हमलोग छोटे शहरों से है जहां इन सब प्रथाओं का हम बखूबी पालन करते है।पर महानगरो में अत्याधुनिक परिवारों में शायद अब पालन कम होता है।
 
Priyanka Roy: वाह हमेशा की तरह अद्भुत लेखनी व इसबार एक शानदार विषय भी बखूबी प्रस्तुत किया आपने। ‘खोइचा’ की परम्परा हमारे घर में आज भी मौजूद है। यह परम्परा इस बात का द्योतक है कि, बेटियों का ‘दोनों घर’ खोइचा की ही तरह भरा-पूरा रहे। मुझे तो ससुराल से भी आते वक्त खोइचा मिलता है। खोइचा के गांठ हमारे तरफ ननदों या बहनों के द्वारा खोलने का रिवाज है।
लगभग सभी भारतीय परम्पराओं और रीति रिवाजों के पीछे कई धार्मिक-सामाजिक तथ्य छुपे हैं जो हमें भावनात्मक बन्धन से जोड़े रहते हैं। बेहद उम्दा पोस्ट!!
 
Sangita Roy: बहुत अच्छी बात कही प्रियंका जी।हमारे यहां भी ननद या बहन ही खोलती है।खोईछा का पैसा ननद या बहन का हो जाता है और चावल का खीर बनाने का रिवाज है।उस खीर के स्वाद का का क्या कहना मायके ससुराल का प्यार जो घुला होता है उसमें। 😊
 
Nilu Sharma: बहुत ही सुन्दर रचना ….
 
Pawan Ray: बहुत ही सुंदर जानकारी
 
Deorath Kumar: बहुत सुंदर पोस्ट
 
Sangita Roy: वाह बेटा बहुत ही अच्छी बात कही।अब तो आपलोगों की ही जिम्मेवारी है इसे आगे ले जाने की तभी तो आने वाली पीढ़ी इस प्रथा से परिचित हो पायेगी।
 
Ranjeet Ranjan Sahar: अब लोग भावना को महत्व नही देते हैं.ब्यवहारिकता सबों पर हावी हो गइ है.मां का हृदय तो अभी भी वही है.परन्तु वह भी “पराधिन” होने पर चुप रह जाती है.रही बात चाची मामी फूआ भाभी आदि का; तो ये रिस्ते अब सिर्फ नाम गिनाने के काम आते हैं.
मैने अपने जीवन मे जो देखा; लिख दिया .अगर ये रिस्ते और भावनायें आज भी कहीं निभाइ जा रहीं हैं तो यह बहूत खुशी कू बात होगी.
 
Sangita Roy: यह सच है कि कई जगह यह आज भी निभाई जा रही है।
 
Ranjeet Ranjan Sahar: जहां ये रस्म निभाइ जा रही है; वहां की महिलायें श्रद्धा योग्य हैं.
 
Sangita Roy: बहुत खुशी हुई ये जानकर की आपके यहाँ यह प्रथा स्नेह से निभाते है आगे भी लोग ऐसे ही निभाते रहे।
 
Amod Kumar Sharma: सामाजिक रिती रिवाज पर लेख के लिए धन्यवाद। यह प्रथा आज भी प्रचलन में है।
 
Pinky Bhardwaj: बहुत ही सुन्दर पोस्ट है । ये रिवाज हमारे यहा भी है । हमे तो आज भी दोनो घरो से खोईछा मिलता है ।
 
Sangita Roy वाह! बहुत अच्छी बात।
 
Rakesh Nandan: ऐसी बात नहीं हैं! जब तक परिवार में लोग ज़िंदा हैं आशीर्वाद से खोईंछा हमेशा भरा रहेगा बेटी बहन का!! ऐसा मेरा मानना है!!
 
Vinita Sharma: सुंदर प्रस्तुति। जो परंपराएं निभाते हैं वे आज भी खोइँछा देतें है। ये अलग बात है कि आज सुंदर सुंदर पोटलियाँ उपलब्ध हैं भरने के लिये।
Amita Sharma : बहुत सुन्दर एवम भावनात्मक प्रस्तुति।नई पीढ़ी को बरकरार रखने के लिए ट्रेनिंग की जरूरत है।हमलोगों ने बचपन से देखा है इसलिए निभाते हैं और रहेंगें।
 
Bindu Kumari: बहुत सुंदर लेख ,मैं भी इस रीती रिवाज को पसंद करती हूँ और निभाने की कोशिश करती हूँ ,वैसे भी आज के युग में पुरानी रीती रिवाज करीब करीब खत्म हो रहा है, जिससे लोगों में एकाकीपन बढ़ रहा है,इसलिए हमें जितना हो सके इसे निभाना ही चाहिए।
 
Sangita Roy: बहुत अच्छा लगा कि आप भी इस रिवाज से जुड़ी है।इस रिवाज में जो भावनाएँ छुपी है वो हम स्त्रियाँ ही महसूस कर सकती है।
 
Dilipkumar Pankaj: भाभी धन्यवाद। कभी मौका मिले तो हमारे गांव गुजूरु आइए भैया के साथ । परंपरागत परंपराओं का खुशनुमा वातावरण देखकर मुग्ध हो जाइएगा।
 
Sharma Nirmala: जो परम्परा चली आ। रही है उसका निर्वहन हम पर निर्भर करता है। सदियों से चली आ रही है, और आगे ही चलतु रहेगी।हमने वाली पीढ़ी को सिखाये तो।बहुत ही सुंदर। लिखी है दी दिल भर आया ।अपना वो दिन याद आया जज्ब माँ चावल निकाल रही होती थी रोते रोते फिर अपनी भी आंखे अपने हिई नाम हो जाया करती थी।लिखते रहिये।
 
Sangita Roy: शुक्रिया दी।सही में अपना समय याद आता है।
 
Chandra Rai: वाह! हमारे यहां यह परंपरा अभी भी जारी है।
लोकगीतों में भी इसकी चरचा है।
Dhirendra Nath Sharma: सामाजिक चित्रण कीप्रस्तुती आप बहुत हीसुंदर ढंग से करती है।

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