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ज़िंदगी का द्वन्द: प्रियंकर भट्ट, कथाकार Delhi India 

ज़िंदगी का द्वन्द: प्रियंकर भट्ट, कथाकार

कथाकार: प्रियंकर भट्ट

आज संडे है और सुबह से घर का माहौल ख़ुशनुमा है, ना नाश्ता बनाने की जल्दी थी किसीको, ना नहाने धुलने की।
घड़ी में सुबह के 10 बज चुके है, पर घर के मलिकार श्री मुकेश शर्मा जी इत्मिनान से बैठे चाय की चुस्कियाँ ले रहे हैं, मुकेशजी शहर के व्यवहार न्यायालय में वकालत करते हैं। वैसे तो ग़ैरों के गृह-क्लेश इनकी आय का साधन है, परंतु अपने व्यवसाय से एकदम विपरीत इनका मन शांत है और ये ख़ुद एक नेकदिल इंसान हैं। पापा..आशू सही कह रही है, आप नहा धूल कर, अपना पूजा पाठ कर, कुछ खाकर थोड़ा आराम कर लीजिए वरना आपकी तबियत ख़राब हो जाएगी। बग़ल में बैठे उनके बेटे और आशू के पतिदेव, श्री सुनील गुप्ता ने अपने पिता की चिंता जताते हुए कहा। आज ये हमारी थोड़ी ना सुनते हैं, इनकी बरसो की विनती जो पूरी हुई है। बग़ल में बैठी गुप्ता जी की धर्मपत्नी सुशीला कहने लगी…
पूरे 5 बरस बाद ये दिन आया है, जब इस घर में वारिस आएगा। क्या बात करती हो सुशीला…चाहे कोई भी आए, हमारा अपना होगा, जीवन से ज़्यादा प्रिय होगा…गुप्ता जी ने अपनी पत्नी की महत्वकांक्षा का दमन करते हुए उसे सही बात बताई। क्यों ना होगा लल्ला? क्या पाँच बरस बाद भी ऊपर वाला हमसे मज़ाक़ ही करेगा? उसका दिल नहीं?
इस बेचारी ने ना जाने ज़माने के कितने ताने सहे। बाँझ, अभागी, कुलबोरी ना जाने क्या क्या कहा लोगों ने इसे, इसके मुँह के सामने और इसके पीठ पीछे। इसकी भी ना सुनेगा?
आशू मन ही मन बस भगवान को धन्यवाद बोल रही थी, उसे तो बस ख़ुशी थी माँ बनने की। वो अप्रतिम, अभूतपूर्व, अग़ाढ़ अहसास को गले लगाने की जिसके लिए वो हर साँस तड़पी है, जिसके लिए वो ५ बरस चैन से सोई नहीं, जिसके लिए उसकी आँखो ने नमी से दोस्ती कर रखी थी, कभी भी नम हो जाती थी, जिसके लिए वो कुछ समय बाद ख़ुद को बाँझ समझने लगी थी, जिसके लिए उसने इतने कम उम्र में पचासो तीर्थ कर लिए, सैंकड़ों दवाइयाँ खा ली। तब जा कर आज ऊपर वाले ने उसकी सूखी कोख में प्राण के बीज बोए हैं। सुबह से उसका रोम रोम हर्षित है जबसे उसने गर्भावस्था जाँचने वाले मीटर में गुलाबी लकीरें देखी हैं। आशू शादी के पहले लखनऊ में ही अपने घर के नज़दीक निजी स्कूल में चौथी से आँठवीं कक्षा के छात्रों को पढ़ाती थी जिससे वो अपने पॉकेट ख़र्च तक के ज़रूरत से कुछ ज़्यादा पैसे कमा लेती थी। अब भी उस स्कूल से उसे अक्सर अवसर आते है, पर सुनील चाहता है कि माँ सुशीला की तरह आशू भी गृहणी बन कर रहे। चुकी सुनील की आए काफ़ी अच्छी है, आशू को किसी चीज़ की दिक्कत तो नहीं थी। पर दिल ही दिल में आशू उन स्कूल के बच्चों के साथ बिताए दिन याद करती है और उसका मन फिर से उन्हें पढ़ाने को कचोटता है। सुनील एक अच्छी कम्पनी में एक व्यवस्थापक के रूप में कार्यरत है, वो एक बहुत ही महत्वकांक्षी इंसान है और इससे उसके व्यावसायिक जीवन में काफ़ी अनुकूल प्रभाव भी पड़ा है। आए कई महीनों से उसके ऑफ़िस में अक्सर लड्डू, मिठाइयाँ बाँटी जाती रही हैं, अभी २० दिन पहले ही उसके प्रिय मित्र अभिषेक को बेटा हुआ है, अभिषेक की ख़ुशी में सुनील ख़ुश तो था और उसके बेटे के नामकरण के भोज में भी ज़ोर शोर से उपस्थित हुआ था, परंतु उसका अपने बेऔलाद होने का ग़म हर पल था। देखा मैंने कहा था ना बेटा ही होगा, अपने बच्चे के जनम के अगले दिन अभिषेक ने सबसे पहले दबे आवाज़ में सुनील के कंधे पे हाथ रखते हुए कहा। तूझे बेटे का इतना जूनून क्यूँ सवार है?…सुनील ने जिज्ञासा भारी आवाज़ में पूछा। भाई, हम भले कितने भी नवयुग के हो जाए, बड़ी बड़ी बातें करने लग जाए, पर हमारे वजूद वो गाँव वाला ही रहेगा। क्या जवाब देता अपनी माँ को, जो नौ महीने से बेटा, बेटा का रट लगाए थी। बाबूजी क्या बताते गाँव में ताऊजी को…अभिषेक ने दृढ़ता भरे मुद्रा में कहा। क्या बात कर रहा है यार…बेटा… बेटी अलागग्गग…
अलग होते है भाई अलग होते हैं, क्यूँ नहीं होते अलग, बेटी बड़ी होगी तो लड़कों की तरह उसे बाहर भेज देगा तू खेलने के लिए, स्कूल, टूइशन भेज कर चैन से बैठ पाएगा घर में, बेउम्र किसी लड़के से दोस्ती कर लेगी तो कहाँ कहाँ घूमता फिरेगा उसके पीछे, लड़के में ऐसी कोई टेन्शन नहीं है, चिंता मुक्त जीवन है, और तो और घर का घर में रह जाएगा, लड़कियाँ तो मेहमान है छोड़ कर चली जाएँगी वो भी बीस, पचीस लाख लेकर। मैं तो कहूँगा तुझे भी लड़का हो, जैसे मुझे, मनोज को, आशीष को और सूरज को हुआ है…अभिषेक ने सुनील की बात सिरे से काट दी। थैंक्यू दोस्त- सुनील ने मुस्कुराते हुए अभिषेक के कंधे पे हाथ रखते हुए कहा। अभिषेक की बात सुनील के दिमाग़ में घर कर गई थी और गहराई तक।

पापा, माँ का मन है पोता खिलाने का तो कहने दो, और अच्छा ही है बेटा होगा तो टेन्शन कम रहेगी। आशू ने सुनील की तरफ़ आचार्य भरी आँखो से देखा, सुनील ने आशू को अंदेखा कर दिया। गुप्ता जी भी इस ख़ुशी के मौक़े पे बहस नहीं करना चाहते थे तो चुप रह गए।

दोपहर का वक़्त था, सब अपने अपने कमरे में भोजन के बाद आराम कर रहे थे, सुनील, ये तुम क्या कह रहे थे, I didn’t know that you have a choice for a boy or a girl… आशू ने उसी अचरज भरी आवाज़ से पूछा। ऐसा नहीं है कि मेरी कोई choice है, बेटा होगा तो चिंता मुक्त जीवन रहेगा, बाहर दोस्तों के साथ खेलने जाएगा तो टेन्शन नहीं, टूइशन पढ़ने जाएगा तो टेन्शन नहीं, बोए-फ़्रेंड्ज़ का कोई चक्कर नहीं, और तो और घर का घर में ही रह जाएगा और, बेटी की तरह बीस पचीस लाख लेकर दूसरे घर भी नहीं नहीं जाएगा, अभिषेक की बोली सुनील धाराप्रवाह बोलता गया। कैसे चिंता मुक्त रहोगे, आशू ने अपना तर्क देना शुरू किया, आजकल कोई सेफ़ है क्या?
लड़का हो या लड़की। लड़कों के साथ भी आए दिन हादसे होते है, उसकी संगत कैसी रहेगी इसकी दिक्कत, कॉलेज जाएगा तो क्या क्या करेगा इसकी टेन्शन, और शादी उसकी भी तो करोगे, आजकल लड़के लड़की की शादी में कोई अंतर नहीं होता, पैसे उतने ही लगते हैं। और वक़्त का क्या पता, बुढ़ापे में हमें उतनी ही इज़्ज़त देगा या नहीं, सेवा करेगा या नहीं। अपनी देख भाल हम ख़ुद कर लेंगे बुढ़ापे में – सुनील शर्ट का बटन बंद करते हुए, ये कह कर दरवाज़े के बाहर निकल गया। उसे ऑफ़िस के काम से थोड़े देर के लिए मार्केट जाना था। आशू भी ये सोच कर शांत हो गई की भविष्य की होनी के लिए अपना आज क्यूँ ख़राब करे। लेकिन क्या आशू को पता था की अभिषेक के कहे शब्द सुनील के दिल दिमाग़ में इस क़दर घर कर गए थे की अब इसने जुनून का रूप ले लिया था, सुनील के दिमाग़ में अक्सर अब यही बात चला करती थी और सुबह वाले उसकी माँ के शब्द ने आग में घी का काम किया था। सुनील मार्केट की ओर अपनी कार से बढ़ रहाh था, संडे की वजह से ट्रैफ़िक और दिनो की तुलना में काफ़ी हल्की थी, बरसात के मौसम की हल्की हल्की हवा चल रही थी जो कार की खिड़की के खुले शीशे से अंदर आ रही थी और सुनील के चिंतायुक्त चेहरे को छू कर दूसरी ओर निकल रही थी। पर इस मनोरम वक़्त में भी सुनील के दिमाग़ में अभिषेक और सुबह उसके माँ की कही बात ही गूँज रही थी”
अचानक सुनील की नज़र सड़क के किनारे पार होती एक दीवार पे पड़ी जीसपे बड़े बड़े काले शब्दों में अंकित था:- “मन चाहा बच्चा कराए, लड़के, लड़की की संभावनाओं की चिंता से मुक्ति पाए”
सुनील के पाँव स्वतः गाड़ी के ब्रेक पे अपना दबाव बनाते गए और गाड़ी वही रुक गई। “लाल फाटक के पीछे, गाली नम- २, नंदगाँव”
“एक बार जो आया, कभी नहीं पछताया-फ़क़ीर रहमत”
सुनील आगे पढ़ता गया और उसके दिमाग़ की दृढ़ता बढ़ती गई। अपने मोबाइल पे नम्बर मिलने लगा। हैलो, आशू! मैं रात को देर से लौटूँगा, तुम खा कर सो जाना, मैं घर पहुँच कर कॉल करूँगा। क्यूँ क्या हुआ? कुछ बताओ तो…आशू के पूछते पूछते सुनील ने कॉल काट दिया। सड़क के किनारे मील के पत्थर पे लिखा था- नंदगाँव-230 km सुनील की गाड़ी कुछ ही देर में हवा से बातें कर रही थी और उसके आँखो में रोमांच और जुनून एक साथ दिख रहे थे। लगभग २ घंटे बिना रुके चलने के बाद कुछ 40 km पहले सुनील को हाइवे छोड़ कर नंदगाँव के लिए एक कच्चे रास्ते पे उतरना पड़ा। ५ km और चलने के बाद सुनील एक ढाबे पे चाए पीने और हाथ पाओं सीधा करने उतरा। भैया एक स्पेशल चाए बनाना, बहुत दूर से आ रहा हूँ। ये लो साहब गरमा-गरम अदरक वाली चाए और प्याज़ के पकोड़े। अरे पकोड़े नहीं बोला मैंने- सुनील ने मुस्कुराते हुए कहा। पूरे जिले में हमार पकोड़े की बराबरी कौनो नहीं कर सकत साहब, एक, दू ठो खाईं पहिले- गर्व से ढाबे के रसोईये ने कहा। बरसात का मौसम, सफ़र की थकावट और भूख ने सुनील को मना लिया।
हाहाहा- अच्छा लाओ भैया, देखे तुम्हारे मशहूर पकोड़े, सुनील ने मेज़ पे प्लेट अपनी ओर खींचते हुए कहा। वैसे भैया नंदगाँव क्यूँ आना हुआ, यहाँ के तो लागत नहीं हो तुम- रसोईये ने पूछा। पहले तो सुनील ने शर्म से नहीं बताया पर दिल की व्याकुलता दूर करने के लिए पूछ लिया, ये “फ़क़ीर रहमत” कौन है?
अरे साहब, कौन से पचड़े में पड़त हओ, ऊ साला पाखण्डी है बहुत बड़ा, गाँव के लोगन की मदद करता नहीं ससुर, शहर में दुनिया भर के क्लाइयंट है इसके। और सब के सब अजीब लागत हैं जब कभी भी इहा अवत हैं। हमका तो लागत है कौनो जादू टोना करत है ससुर। और सुना है उकि बीवी भी छोड़ गयी रहे उका शादी के दुइए दिन बाद। रोसोईया धारा प्रवाह बोल रहा था और सुनील सुन रहा था। सुनील के दिल में एक ख़ुशी थी की पता ग़लत नहीं था। रसोईया आगे बोलने लगा। ऊ जो ज़िला पंचायत का चुनाओ जीती थी ना, कमला कुमारी, ऊ जो लेडीज़, जेंटस कुच्छो नहीं है, का बोलते है उक़ा, हाँ- किन्नड़। सुना है उके चुनाव में बहुत ज़ोर शोर से भाग लिया रहे ई फ़क़ीर। उके शादी के दू दिन पहिले ही तो चुनाव रहे, तक़रीबन १० साल पहिले की बात है, और शादी के दू दिन बाद उकि बीवी भाग गई, सुना है ईका चक्कर रहे ऊ किन्नड़ से। रहे भी तो एकदम जाबड़, गोरी, चिट्टि, लम्बे नाक, रेशमी बाल, कोई देख के बोल नहीं सकत रहे की किन्नड़ है। अरे नहीं, का का बकत हो, बग़ल में मेज़ साफ़ करते दूसरे कर्मचारी ने कहा। चुनाव में सबके पैसा मिला रहे, ईका थोड़ा ज़्यादा मिला रहे, और कौन नहीं जानत है की उकि बीवी का चक्कर ऊ दूसरा गाँव के सरपंच के बेटे से रहा। उके साथ भाग गई रहे, ईमे फ़क़ीर का का दोष है। सुनील बस उनकी बातें एक कान से सुनता और एक कान से निकलता जाता था। ठीक है भैया चाई और पकोड़े दोनो बेजोड़ थे, अब मैं निकलता हूँ- सुनील ने मेज़ से उठते हुए कहा। नमस्ते साहब- फिर आना- दोनो कर्मचारियों ने हाथ जोड़ कर अभिवादन किया। सुनील मुस्कुराते हुए गाड़ी में बैठ गया, उसकी आँखों ने वो रोमांच और वो जुनून दोनो नहीं खोए थे। कच्चे सड़क पे कीचड़ के बीच धीमी गती में सुनील की कार आगे बढ़ रही थी। आने जाने वाले लोग उसे और उसकी गाड़ी को ऐसी नज़रों से देख रहे थे मानो वो भी फ़क़ीर रहमत का क्लाइयंट हो। जोकि वो था ही। ढाबे वाले रसोईये की बात उसके कानों से होकर निकल गई। लगभग एक घंटे के बाद वो लाल फाटक के सामने खड़ा था। नींद, थकावट के मारे जैसे खुली आँखो से सोने लगा हो वो, उसे अपने घर का बिस्तर दिख रहा था, पर उसने अपना ध्यान एकत्रित किया। लाल फाटक कोई गेट नहीं था बल्कि एक बहुत बड़े पीपल के पेड़ के बहुत चौड़े तने को बीच से काट कर एक दरवाज़े की शक्ल दे दी गई थी और उस पूरे तने को लाल रंग से पोत दिया गया था..
तने में लाखों धागे बँधे थे और एक लाल कपड़े से पूरे तने को लपेट दिया गया था। साहब?? ओ साहब कहाँ जाओगे? एक रहगीर ने पूछा। गली नो २- सुनील की नींद टूटी हो जैसे। उस राहगीर ने सुनील को सिर से पाँव तक अजीब नज़रों से देखा। अंदर जाकर १०० गज़ की दूरी पे बायें तरफ़ पड़ी।- राहगीर ने कहा। देखे में तो ठीक ठाक लगत है, बुदबुदाता हुआ राहगीर वहाँ से चला गया। गाड़ी आगे नहीं जा सकती थी, सो सुनील ने गाड़ी वही बंद कर दी और पैदल गली नो २ की ओर चल पड़ा। गाली नो एक के चहल पहल के ठीक विपरीत गली no २ में ग़ुप सन्नाटा और अँधेरा था। थोड़ी दूर और चलने पे बायीं ओर एक दरवाज़े के पर्दे के पीछे लाल, नीले रंग की बत्ती जलती दिखी, देखने में वो मोमबत्ती की रौशनी मालूम पड़ती थी। सुनील ने दरवाज़े पे लगी कुंडी खटकाते हुए आवाज़ लगाई। कोई है??फ़क़ीर रहमत??
कोई नहीं आया…..
फ़क़ीर रहमत??
कोई है??
अचानक सामने का पर्दा हटा, और धूप बत्ती के घने धुँए के पीछे से एक भयानक चेहरा दिखा। लाल बड़ी बड़ी आँखो में मोटे काजल, होंठ का काला रंग, और माथे पे काला टीका, बिखरे बाल जो कंधे तक लटके आपस में उलझे हुए थे। सुनील दो तीन धड़कन भूल गया हो जैसे, अचानक २ क़दम पीछे हट गया। अरे आइए, आइए- आपका ही इंतजार था-फ़क़ीर रहमत ने मुस्कुराते हुए कहा। सुनील की आँखें थकावट के मारे भरी हो रही थी। सुनील ने फ़क़ीर के पहने काले कपड़े को देख कर कहा..
आप हमेशा ऐसी ही वेश भूषा में रहते है?
हाहाहाहा, आपको डरा दिया क्या मैंने?
अरे नहीं- सुनील ने डर का घूँट अंदर लेते हुए कहा। दरासल ये मेरी पूजा का वक़्त है और मैं ऐसी वेश भूषा में ख़ुद को भगवान के नज़दीक महसूस करता हूँ। आप कहाँ से आए हैं?- फ़क़ीर ने पूछा। लखनऊ से- सुनील ने कहा। अरे वाह, वहाँ तो हमारे काफ़ी लोग हैं- फ़क़ीर ने गर्व से कहा। वो मैंने आपका लिखा हुआ लखनऊ में दीवार पररर..
हाँ हाँ, हमारे लोग हमारे प्रचार करते रहते हैं- फ़क़ीर कहता गया…
क़ुदरत का नियम है, वो सब को सब कुछ नहीं देता, और अगर देता है तो कुछ ना कुछ छीन लेता है। चाहे वो किसी को कितनी ही प्यारी क्यूँ ना हो। क़ुदरत भी ग़लतियाँ करता है। किसी से कुछ छीन कर क़ुदरत भी ख़ुश नहीं रहता। इसलिए उसने हमें बनाया है, हमें अपने शरण में लिया है, हमें इस क़ाबिल बनाया है की हम उसकी ग़लतियाँ अगर सुधार ना भी सके तो आम लोगों को चंद ख़ुशियाँ दे सके। उनमे से एक ख़ुशी है पुत्र होने की। और उस क़ुदरत ने मुझे ये ताक़त दी है की उसकी तरफ़ से उसका ये काम मैं कर सकूँ। आप ऐसा कर सकते हैं?? सुनील ने अब भी अचरज और रोमांच भरे स्वर में पूछा। मेरे साथ आओ- फ़क़ीर सुनील को अपने साथ और भीतर ले जाने लगा। पूरे घर में धूप का धुआँ दम घोंट रहा था, हर कमरे में मोमबत्ती पे लाल शीशा चढ़ा था। फ़क़ीर एक छोटे कमरे में आकर रूक गया। सुनील कमरे को आऊँघियाई आँखो से देखने लगा, कमरे में एक तरफ़ मिट्टी की बनी एक भद्रकाली की प्रतिमा बनी थी जो पूरी तरह से सिंदूर के लाल रंग सनी थीं, और दूसरी तरफ़ एक छोटी सी चटाई बिछी थी जिसके सामने मक्के, मदीने की तस्वीर टँगी थी और आयतें लिखी थी। आप हिंदू हो या….सुनील पूरा वाक्य बोल पाता उससे पहले फ़क़ीर बोल पड़ा। क़ुदरत के कई रूप हैं। धर्म तो माध्यम है, मैं भगवान, खुदा दोनो माध्यम से वाक़िफ़ रखता हूँ। सुनील ने आगे तर्क वितर्क नहीं किया। ये लो, ये सूखी जड़ी है, और ये भभूति, जड़ी सुबह चाए या दूध के साथ और भभूति शाम को दूध के साथ, ये प्रक्रिया नौ महीने तक करनी होगी, तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा।- फ़क़ीर ने सुनील को एक मोटी थैली पकड़ाते हुए कहा। इससे कुछ साइड इफ़ेक्ट तो नहीं होगा- सुनील ने चिंता जताते हुए कहा। याद रखना की कोई बारी ख़ाली ना जाने पाए, तुम्हारी इक्षा पूरी हो।- फ़क़ीर ने चेतावनी के साथ आशीर्वाद दिया। सुनील भारी क़दमों से कमरे के बाहर निकलने लगा। दरवाज़े के बाहर निकल कर ४-५ क़दम आगे बढ़ कर उसने पीछे मुड़ कर देखा दरवाज़े का पर्दा एक तरफ़ को सिमटा था, kamre के अंदर की लाल मोमबत्ती की रौशनी में कमरे पे टँगी एक तस्वीर थी जो सुनील देख ना पाया था शायद, या देख तो लिया था पर ध्यान ना दे पाया था। उस तस्वीर में उस फ़क़ीर के साथ एक बहुत ही ख़ूबसूरत औरत बैठी थी जो सारी पहने थी और सर पे घूँघट थी उसके। उस तस्वीर के नीचे बड़े बड़े शब्दों में लिखा था, “आइए-आइए, आपका ही इंतेजार था”
ठीक उस तस्वीर के नीचे बैठे फ़क़ीर की लाल आँखे सुनील को अलवीदा कह रही थी। लाल फाटक के बाहर निकल कर सुनील अपनी कार तक पहुँचा, रात के १२ बज चुके थे। कार में बैठते हुए सुनील ने लाल फाटक की तरफ़ देखा, पीपल के पत्ते हवा में फड़फड़ा रहे थे, वही कोई हवा जैसे सुनील के सारे बदन को ठंडा करती चली गई। सुनील गाड़ी में बैठ वापिस अपने घर की ओर चल पड़ा, सुनील अब कीचड़ में भी तीव्र गती से चल रहा था, हाइवे आ चुका था और सुनील की गाड़ी फिर एक बार hawa से बातें कर रही थी। अब सुनील को ठंडी हवा की सरसराहट अपने चेहरे पे महसूस भी हो रही थी और सुनील अब थोड़ा ख़ुश और निश्चिंत भी था। ३ बज चुके थे जब सुनील ने आशू को कॉल किया। आशू ने दरवाज़ा खोलते ही पूछा, कहाँ थे? माँ, पापा दोनो परेशान थे, पूछ रहे थे, तुम तो ऑफ़िस के काम से गए थे ना?
अरे भाई चालो अभी सोते हैं, कल सब कुछ बताता हूँ सुबह। आशू और सुनील गले पल नींद की आग़ोश में थे। स्वर्णिम सवेरा हुआ। अरे पापा, आज इतनी सुबह जाग गए? सुनील ने जम्हाई लेते हुए कहा। अरे एक क्लाइयंट है, सात बजे ही बुलाया है, तू भी तो इतनी सुबह जाग गया, ख़ुशी सोने नहीं देती, कह कर मुकेश जी मुस्कुराने लगे, और कहा, कहाँ चला गया था कल, हम सब कितना परेशान हो गए थे, तेरा फ़ोन भी नहीं लग रहा था?
अरे पापा कुछ नहीं अभिषेक के घर ऑफ़िस का कुछ काम करने लग गया था, आप तो जानते है हमारे जॉब में संडे, मंडे सब एक हैं। फ़ोन मेरा घर पे ही छूट गया था। शायद ऑफ़ हो गया होगा?
आज घर से ही काम करूँगा- सुनील ने बात छुपाते हुए कहा। सुशीला उसी वक़्त चाए लेकर आई और कहा- बेटा अभिषेक के फ़ोन से ही बता देता। अब छोड़ो भी माँ, अगली बार से बता दूँगा- सुनील ने टालते हुए कहा। मुकेश जी तैयार होकर अपने क्लाइयंट से मिलने निकल गए। चुकी घर के क़रीब ही जाना था, सो वो अपनी स्कूटी चला कर ही गए। सात बज चुके थे, सुनील चाए की ट्रे के साथ आशू को जगाने गया। आशू पहले ही जाग चुकी थी। अरे वाह, ये क्या तुम्हें पापा बनाने का गिफ़्ट है?
इतने छोटे से गिफ़्ट से नहीं मानूँगी मैं, मुझे नया वाला आइफ़ोन चाहिए- आशू ने ख़ुश होते हुए कहा। अब जल्दी जल्दी बताओ कहाँ गए थे कल, मैं कितना परेशान थी, और ये जो तुम्हारा ख़ून आया है मेरे पेट में ये भी- आशू ने फिर कहा। अरे तुम दोनो के लिए ही इतनी देर तक बाहर था- सुनील ने कहा। दरासल अभिषेक की वाइफ़ के डॉक्टर के पास गया था, वो M.B.B.S., MD, के अलावा आयुर्वेद में भी काफ़ी जानकारी रखते है- सुनील झूठ बोलता चला गया…
उनके इनही आयुर्वेदिक दावा के वजह से ही आज इतना स्वस्थ बेटा हुआ है उसे- सुनील ने उस फ़क़ीर की जड़ी और भभूत देते हुए कहा। सुनील! फिर तुम बेटा, बेटा करने लगे- आशू ने निराशा से कहा। अरे नहीं, जो हो, ईश्वर उसे स्वस्थ रखे, चाहे बेटा हो या बेटी- सुनील ने कहा, क्यूँकि उसे अंदर ही अंदर विश्वाश था कि बेटा ही होगा। आशू ने सुनील को भरे आँखो से गले लगा लिया। पर हम क्या अभिषेक की वाइफ़ के डॉक्टर को दिखाएँगे?- आशू ने पूछा अरे नहीं, नहीं, डॉक्टर माथुर मुझे मार डालेंगे। इतने साल उन्होंने तुम्हारे और मेरे पे इतनी मेहनत करी, पापा के दोस्त ना होते तो एक बार को दूसरे डॉक्टर का सोच भी सकते थे। हाँ बस उनको इस भभूत और जड़ी के बारे में मत बोलना, वो जानती हो ना, एक डॉक्टर, दूसरे डॉक्टर को कभी सही नहीं कहता- सुनील जानता था कि अगर फ़क़ीर वाली बात सच बताई तो कोई विश्वाश भी नहीं करेगा और आशू का विश्वाश भी टूट जाएगा। बस तुम्हें बिना miss किए हुए दोनो चीज़ें नौ महीने तक खानी है, और दूसरे दवाओं के साथ खाने से कोई दिक्कत भी नहीं- सुनील ने उसे मजबूत शब्दों में कहा। इस अवस्था में शायद भगवान से भी ज़्यादा विश्वाश एक पत्नी अपने पति पे करती है, सो आशू ने आँख बंद कर के कर लिया। दिन, महीने बीतते गए, डॉक्टर माथुर ने नौवें महीने की 11 तारीख़ का डेट दिया। आशू ने एक बार भी जड़ी और भभूत का सेवन ख़ाली नहीं जाने दिया। उसके ऊपर सुनील चाहे कहीं भी होता या तो ख़ुद, या फ़ोन पे आशू को याद दिला देता। देखते देखते नौ महीने बीत गए। मैं तो अपने साथ किन्नड़ो को भी हॉस्पिटल ले जाऊँगी, गाने बाजे के साथ! 5100 रुपय का वादा भी कर रखा है अपने मुहल्ले के पीछे वाली टोली को।कहते है बच्चा होते ही किन्नड़ के हाथ में देने से बच्चे का भाग खुल जाता है- सुशीला ने कहा। क्या सुशीला हॉस्पिटल में अंदर कौन ले जाने देगा किन्नड़ को- मुकेश जी ने कहा। अरे फिर काहे की दोस्ती तुम्हारी डॉक्टर से- सुशीला ने ताना मारते हुए कहा। अच्छा ठीक है पर पूरी टोली नहीं जाएगी अंदर २ से ज़्यादा नहीं जाएँगे, मैं माथुर से बोल दूँगा। आशू को डॉक्टर माथुर के हॉस्पिटल में भर्ती किया गया। मुकेश जी, सुनील, सुशीला के अलावा दो किन्नड़ भी साथ खड़े थे। अरे लल्ला ही होगा बीबी, क्यूँ चिंता करती हो, ताली ठोकते हुए उनमे से एक किन्नड़ ने कहा। सुशीला ने 500 रुपय ख़ुशी में उसे दे दिए। सब की आशा आशू ढोए थी, उसकी साँस की, जो अपने गोद में पोते को झूला झुलना चाहती थी, उसे लाड़ प्यार करना चाहती थी, मुकेश जी की, जो बस चाहते थे की घर में बच्चे की किलकारी गूँजे, पोता हो या पोती उसे कंधे पे बिठा कर बाज़ार की सैर करे। एक आशू के ख़ुद की आशा जिसमें वो बस अपने बच्चे का गुलाबी चेहरा देखना चाहती थी, अपनी सूखी छाती से उसे लगा कर रोना चाहती थी, माँ बनना चाहती थी, जीना चाहती थी। सबकी आशा के विपरीत, सुनील की आशा उस फ़क़ीर पे टिकी थी, हॉस्पिटल के इतने ठंडे ए॰सी॰ में भी सुनील के कनपटी के पीछे से पसीना उसकी छाती पे लकीर बना रहा था। ऑपरेशन थीयटर की बत्ती आशू को अंदर ले जाते ही जल गई और दरवाज़ा बंद हो गया। डॉक्टर माथुर पर सबको भरोसा था। अब सबको बत्ती बुझने का इंतज़ार था, सबसे ज़्यादा सुनील को। बत्ती बुझी, दरवाज़ा खुला, बच्चे के रोने की आवाज़ आइ, सब दरवाज़े की ओर दौड़े, किन्नड़ भी। अंदर घुसते देखा, आशू की आँखे फटी पड़ी थी और जड़ हो चुकी थी, उसी धड़कन धीमे हो चली थी। सारी नर्स, बिस्तर के चारो तरफ़ आशू को घेरे स्तब्ध खड़ी थी। डॉक्टर माथुर क्या हुआ, आशू, आशू, तुम ठीक तो हो??- सुनील आशू को झँझोड़ते हुए पूछने लगा। डॉक्टर माथुर ने लड़खड़ाते हुए शब्दों में कहा- it’s a Transgender!
क्या बकवास कर रहे है आप डॉक्टर- सुनील ने डरे हुए भाव से कहा!
सुनील, बच्चा किन्नड़ है- डॉक्टर माथुर ने तड़पते हुए कहा। सुनील की माँ ये सुनते ही धरती पे गिर पड़ी, मनोज उन्हें सम्भालने लगे। सुनील पगलों की तरह बच्चे के शरीर से तौलिया हटाने लगा। तौलिया पूरा हट चुका था- सुनील के शरीर में जैसे ख़ून की जगह पानी दौड़ने लगा, उसका पूरा बदन पसीने से भीग चुका था। सुनील के आँखो के आगे धुँधलापन छाता जा रहा था।क़दम जैसे जड़ हो गए थे, कानों में सीटियाँ बज रही थी और दिमाग़ में तूफ़ान चल रहा था आशू को फिर से ऑक्सिजन मास्क लग चुका था, उसकी धीमी धड़कन ई॰सी॰जी॰ मशीन की तेज़ टुं, टुं की आवाज़ से मालूम हो रही थी। डॉक्टर माथुर उसके सिर के पास खड़े नर्स को आशू को इंजेक्शन देने के निर्देश दे रहे थे। एक किन्नड़ सुनील के गोद से बच्चे को उठा कर बोला- अरे ये तो हमारे लोग की बिरादरी का है। दोनो किन्नड़ बच्चे को ऑपरेशन थियेटर से बाहर ले जाने लगे। उनमे से एक किन्नड़ बच्चे का सिर सहलाते हुए बोला। “आइए, आइए- आपका ही इंतजार था”

समाप्त

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