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अशिक्षा के कारण ही महिलाओं की बदतर हालत: स्वामी विवेकानंद Bihar 

अशिक्षा के कारण ही महिलाओं की बदतर हालत: स्वामी विवेकानंद

त्रिपुरारी राय/ सहरसा, बिहार

जैसा कि आप सभी जानते हैं शिक्षा का हमारे जीवन में बहुत महत्व है। यह हमारी सभी मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। इसके बिना हम अपनी स्वस्थ और सफल जीवन की कामना नहीं कर सकते हैं। इस वैज्ञानिक युग में हम नित्य नई तरक्की कर रहे हैं किन्तु आज भी लगभग सभी वर्गों में एक समूह अब भी शिक्षा से वंचित है। खुद अपने ब्रह्मभट्ट समुदाय में भी लगभग सभी जगह एक समूह शिक्षा से वंचित मिल जाएगा। इसके पीछे कई कारण रहे हैं। ऐसा नहीं है कि ये आज की कहानी है वर्षों से ये श्रृंखला चली आ रही है।

वैसे आज के समय में अशिक्षा के ग्राफ में कमी आई है। अब तो विद्यालयों में एक से चौदह वर्ष आयु वर्ग के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा दी जा रही है और हमारे बच्चे इसका फ़ायदा भी उठा रहे है। किन्तु सवाल ये है कि हमारे शिक्षा का उद्देश्य क्या हो? आज इसी कड़ी में मैं ‘शिक्षा का उद्देश्य : स्वामी विवेकानंद की नजरों में’ ले कर आया हूँ। स्वामी विवेकानंद, जिनका आधुनिक भारत के सामाजिक पुनर्जागरण में एक प्रमुख स्थान है, एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म लिए थे। वे नरेंद्र (उनका बाल्यकाल का नाम) के रूप में पले-बढ़े और कौतुहलवश रामकृष्ण परमहंस से दक्षिणेश्वर मंदिर जा पहुंचे। कहते हैं – “जिस तरह बरगद के बीज में पूरा एक बरगद समाया रहता है उसी तरह एक नन्हें बालक में भविष्य का एक महान नागरिक छिपा रहता है।”

उसी तरह नरेंद्र ने भी परमहंस जी से कौतुहलवश एक-पर-एक सवाल दागते गए और परमहंस जी ने सभी सवालों का जवाब सहजता पूर्वक देते चले गए। परमहंस जी के उत्तर ने नरेन्द्र के ह्रदय को उद्वेलित कर दिया। उनकी लगन ही थी कि एक छात्र रूप में वे आधुनिक विज्ञान और विश्व इतिहास तथा दर्शन की असाधारण दक्षता प्राप्त कर ली थी |रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के पश्चात विवेकानंद ने सम्पूर्ण देश का भ्रमण किया। उन्हें यहाँ की विविधता के पीछे अन्तर्निहित एकता का आश्चर्य कर देने वाली एकता का भान हुआ। साथ ही वे जनता की शक्ति के साथ उसकी कमजोरियों को भी समझा।| उन्होंने देखा कि यहाँ के अधिकतर लोग अब भी अज्ञान और अंधविश्वास के गर्त में पड़े हैं। वे एक पत्र में अपने मित्र को लिखे थे- “उफ़ ! भारत को ऊपर उठना है। गरीबों की भूख मिटानी है। शिक्षा का प्रसार किया जाना है।” देश का यह पुनर्निर्माण शिक्षा के बिना असंभव है। यहाँ के लोगों में अज्ञान का अन्धकार मिटाना और अंध विश्वास को ख़त्म करना आवश्यक था। इसके लिए शिक्षा ही एकमात्र उपाय था जिसके जरिए जनता को जागरूक बनाया जा सकता था। उनका ध्यान सबसे पहले जनता को शिक्षित करना था जिसके लिए एक योजना बनानी थी और इस तरह से शिक्षा के सूत्र का विकास हुआ। रामकृष्ण मिशन विद्यालय इस बात का एक उदाहरण आज भी है। उनका कहना था – “हमें उस शिक्षा की आवश्यकता है जिसके द्वारा चरित्र का निर्माण होता है, मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है, बुद्धि का विकास होता है और मनुष्य अपने पैरों पर खडा हो सकता है, क्योंकि शिक्षा मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति है |

शिक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानंद ने लिखा –“सभी शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य निर्माण है |” मनुष्य शब्द मानवीय गुणों का द्योतक है और इसका स्वरुप सामाजिक है। पौरुष, साहस, सहयोग, दुसरे के प्रति सहानुभूति आदि मनुष्य के मानवोचित गुण हैं। वे शिक्षा का उद्देश्य केवल जानकारी नहीं मानते थे। जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा है- “मनुष्य का निर्माण केवल जानकारियों से नहीं हो सकता है। हमें तो भावों और विचारों को ऐसा आत्मसात कर लेना चाहिए, जिससे जीवन-निर्माण हो, मनुष्य का निर्माण और चरित्र गठन हो।” उनके अनुसार जिस शिक्षा में धार्मिक आधार ना हो, वो आध्यात्मिक उद्देश्य की पूर्ति में सहायक नहीं हो सकती। विद्यार्थियों की शिक्षा ऐसी हो कि वे अपने देश से प्रेम और अपने संस्कृति के प्रति आदर करना सीख जाएं। स्वामी जी ने शारीरिक शिक्षा पर भी अपनी महत्वपूर्ण बात रखी। वे कहें कि शिक्षार्थी को स्वस्थ होना आवश्यक है जिसके लिए उन्हें योग का सहारा भी लेना चाहिए। स्त्री शिक्षा पर उन्होंने जोर देते हुए कहा कि उनकी दुर्व्यवस्था के पीछे सिर्फ उनकी अशिक्षा है।

स्वामी विवेकानंद बोले – “पहले अपनी स्त्रियों को शिक्षित करो तब वे तुम्हें बताएंगी कि उनके लिए कौन-कौन से सुधार आवश्यक है। उनके मामले में तुम्हें हस्तक्षेप करने का क्या अधिकार है ?” वे ज्ञान को विज्ञान से जोड़ कर उनके बीच समन्वय स्थापित करना चाहते थे ताकि अंधविश्वास पर अंकुश लगाया जा सके। शिक्षा का माध्यम पर भी उन्होंने कहा संस्कृत भाषा संस्कृति की संरक्षा और विकाश के लिए आवश्यक है किन्तु शिक्षा का भाषा मातृभाषा अथवा प्रादेशिक हो तो बेहतर है।

मैकाले की शिक्षा पद्धति ने ना केवल हृदयहीन नौकरशाहों को पैदा किया है बल्कि भौतिकवादी प्रवृत्ति को भी बढ़ावा दिया जो मानवीय गुणों को समाप्त कर दिया।| इससे बेरोजगारों की लम्बी फ़ौज खड़ी हो गई। इधर सूचना क्रान्ति के कारण भी भौतिकवाद को बढ़ावा मिला और बची-खुची ज्ञान की परम्परा भी ध्वस्त हो चली है। इस स्थिति में आध्यात्मिकता की बात कौन करे? हमें इस स्थिति में पौराणिकता और आधुनिकता दोनों के बीच समन्वय स्थापित करना आवश्यक हो गया है जिसके लिए भी शिक्षित होना आवश्यक है।

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